भारत में लोकतन्त्र का भविष्य
भारत विश्व का सबसे बडा लोकतन्त्र है। लगभग 36 करोड से अधिक लोगों को राज्यों की विधान सभाओं और केेन्द्र में लोक सभा के सदस्यों को चुनने के लिए मताधिकार प्राप्त है। 26 जनवरी, 1950 को हमारे संविधान के लागू होेने के पश्चात् लोक सभा के नौ और राज्य विधानसभाओं के लिए इससे भी कई अधिक बार आम चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। इस पूरी अवधि में लोकतान्त्रिक क्रिया कलाप भारत में भली प्रकार होते रहें हैं, जिन्होंने भारतीय लोकतन्त्र को विश्वसनीयता प्रदान की है। जबकि हमारे पडौस में पश्चिम और पूरब दोनों में ही कुछ हद तक उत्तर में भी विभिन्न प्रकार की तानाशाही का उदय होता रहता है। यह प्रवृत्ति अब भी जारी है, भारतीय लोकतन्त्र समय की कसौटी पर खरा उतरा है और इसकी लोकतान्त्रिकता की पश्चिमी देशों में बहुत से नेताओं द्वारा प्रशंसा की गई है। भारत में लोकतन्त्र की इस सफलता के पश्चात् भी, इसके विषय में संदेह एवं भय प्रकट किये गए हैं, निराशावादियों का कहना है कि भारत में लोकतन्त्र की वर्तमान सफलता केवल एक अस्थायी स्थिति है। उनके अनुसार, भारत में लंबी अवधि तक गुलामी का सहा है, इतनी कि दासता की भावना हमारी प्रतिभा और चरित्र का प्रमुख अंग बन चुकी है। भारतीय राजनीति में बहुत से ऐसे तत्व हैं जो भारत को पुनः गुलामी की ओर जाने को मजबूर कर देगें। साम्प्रदायवाद भारत में इतना गहरा समाया हुआ है, और वह लोकतन्त्र की आत्मा को अग्राहय है। भारत में बेहद गरीबी है और गरीबी और निर्धनता लोकतन्त्र एवं लोकतान्त्रिक परम्पराओं के विकास के लिए स्वास्थ्यप्रद नहीं है, क्या उन नागरिकों के जीवन में जीवन का लोकतान्त्रिक तरीका समा सकता है, जोकि घोर सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के शिकार हैं। क्षेत्रवाद और प्रान्तवाद भी ऐसे तत्व हैं जोकि भारत में लोकतन्त्र के जिन्दा रहने तक के लिए खतरा बने हुए हैं, जाति, धर्म और भाषा के नाम पर संकुचित वफादारियां हमारे लाखों लोगों को सम्पूर्ण राष्ट्र के संदर्भ में सोचने से रोकती हैं, इसके अतिरिक्त निराशावादियों का यह भी कहना है कि भारतीयों को पर्याप्त राजनीतिक प्रशिक्षण भी प्राप्त नहीं हैं, वे मुश्किल से ही यह जानते हैं कि मताधिकार का प्रयोग कैसे किया जाता है, वे धन के प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं रख पाते जिसकी भारतीय चुनावों में बहुत बडी भूमिका हो चली है।