परम्परागत मीडिया के एकाधिकार को चुनौती देगा सोशल मीडिया
* राजीव रंजन नाग
प्राचीन काल से ही सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए कई अनेक रोचक एवं अनोखे तरीके अपनाए जाते रहे हैं। आज वह एक कहानी की तरह लगती है। बीते दशकों में संचार टेक्नोलॉजी में आए चमत्कारिक परिवर्तन का सर्वाधिक फायदा सूचना जगत को हुआ है और मीडिया की इस पर निर्भरता बढ़ गई है। स्कॉटलैण्ड के अलेक्जेंडर ग्राहम बेल ने 1876 मे ‘टेलीफ़ोन’ का आविष्कार किया तो इसे मानव के प्रगतिशील विकास की राह में यह एक क्रांतिकारी कदम माना गया। तकनीकी विकास के कारण आज दुनिया मुट्ठी में समा गई है। चीन और अमेरिका के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट यूजर्स देश है। प्रत्येक पांचवी ऊंगली इंटरनेट के बटन पर है। जाहिर तौर पर आज पत्रकारिता पूरी तरह सूचना तकनीकी पर आश्रित है। ई-कम्यूनिकेशन का दौर शुरू हो चुका है। अब वेबसाइट, ई-मेल, यूट्यूब, सोशल साइट, ट्विटर, ब्लॉग जैसे ई-कम्युनिकेशन माध्यम पारंपरिक मीडिया को चुनौती देते दिखाई दे रहे हैं। आज के दौर में पत्रकारिता सूचना और मनोरंजन के मुख्य स्त्रोत बन गए हैं। लोग अखबार इंटरनेट और मोबाइल पर पढ़ रहे हैं। सोशल साइट का प्रयोग दिनों दिन बढ़ रहा है। वर्तमान में 2.7 बिलियन से ज्यादा वेबपेज रोजाना सर्च हो रहे हैं। अमेरिका का युवा कागज पर छपा अखबार नहीं पढ़ रहा बल्कि वह अखबार की जगह नेट पर गूगल समाचार में एक ही जगह तमाम अखबारों की सुर्खियां देख ले रहा है। आज गूगल समाचार के कारण यूरोप और अमेरिका में अखबारो की संख्या और राजस्व दोनों गिर रहे हैं।
तेजी से बदलती तकनीकी ने पत्रकारिता का पारंपरिक चेहरा बदल दिया है। आधुनिकता और प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जहां पहले से खबरों की स्रोतों के इतने सारे माध्यम मौजूद थे, वहाँ ‘सोशल मीडिया’ ने सबको पछाड़ते हुए अपनी ‘अद्वितीय-पहचान’ बना ली है। ‘सोशल मीडिया’ लोगों की पहली पसंद बन गया है। इसका सीधा मतलब है ‘जनता की अपनी आवाज़’। वो आवाज़ जो उसके अपने लोगों से ही निकाल कर उसे सुनाई जाती है। न कोई चैनल…….न कोई अखबार….. सिर्फ आप की खुद की आवाज़, आपकी खबरों के ज्ञान का भंडार। जो सूचनायें परंपरागत मीडिया का हिस्सा नहीं बन पाती, वह आज सोशल मीडिया की सुर्खियां बन ‘वायरस’ फैला रही हैं। इंटरनेट की दुनिया में लोगों के पास असंख्य सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म उपलब्ध हैं, जहां लोग एक-दूसरे से आसानी से संपर्क बना सकते है। अपनी सूचनाओं एवं खबरों को सरलता से आपस में साझा कर सकते हैं। उनमें से सबसे प्रचलित फेसबुक और ट्विटर हैं। फेसबुक से पहले गूगल परिवार का ‘ऑर्कुट’ सोशल प्लेटफ़ार्म का सबसे बड़ा नाम था पर ‘एफ़बी’ के करिश्माई प्रभाव ने इस साल उसके अस्तित्व को ही खत्म कर दिया। गूगल ने ऑर्कुट की सेवाएं एकदम से समाप्त कर दी। आज फेसबुक लोगों की (विशेष तौर पर ज़्यादातर भारतीयों की) पहली पसंद है। दूसरा नंबर आता है ट्विटर का जिसे ‘सेलेब्रिटियों का अड्डा’ भी कहा जाता है। नेता से लेकर अभिनेता एवं जानी-मानी हस्तियाँ सब आपको ‘ट्विटर’ पर मिलेंगे वो भी ‘ओरिजिनल’! हाल में दावोस में संपन्न हुए वर्ल्ड इकोनामिक फोरम में गूगल के प्रमुख एरिक स्मिथ ने यह कह कर दुनिया को और उत्साहित कर दिया कि बहुत जल्द इंटरनेट जिन्दगी के हर पहलू में इतना रच बस चुका होगा कि यह ब्रॉडबैंड में गुम हो जायेगा। आपके इर्द-गिर्द इतने सारे सेंसर और डिवाइस होंगी कि आपके लिए उन्हें पता लगाना तक मुश्किल हो जायेगा।
यह सवाल परेशान कर सकता है कि मीडिया के इतने साधनों के बाद भी ‘सोशल मीडिया’ अस्तित्व मे क्यों आया ? क्या पहले से मौजूद मीडिया के स्रोत निरर्थक और असक्षम हो गए थे जो सोशल मीडिया का जन्म हुआ ? असल मे आत्म-चिंतन और अवलोकन तो प्रिंट और टीवी मीडिया वालों को करना चाहिए जिनकी निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर बार-बार दाग लगे हैं। शायद उसी ‘दाग’ को साफ करने के लिए ‘सोशल मीडिया’ ने जन्म लिया। लोकतंत्र के महत्वपूर्ण अंग की नीलामी को रोकने के लिए ही ‘सोशल मीडिया’ अस्तित्व मे आयी दिखती है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, केवल भारत में फेसबुक और ट्विटर पर सक्रिय सदस्यों की संख्या 33 मिलियन से अधिक हैं। ये आंकड़ें अचंभित करने वाले हैं। सोचिए, इतने सारे लोगो के बीच सूचनाओँ के आदान-प्रदान की सीमा क्या होगी ? भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार पिछले कुछ वर्षो मे ‘सोशल मीडिया’ ने भारत मे ‘गेम-चेंजर’ की तरह काम किया है। राजनीति, व्यापार, शिक्षा और मनोरंजन की क्षेत्र मे ‘सोशल मीडिया’ ने अपनी अद्भुत्त शक्ति दिखाई है।
लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के एक अधिवेशन में राहुल गांधी ने सोशल मीडिया की अहमियत का उल्लेख किया। बाद में तत्कालीन सरकार ने इसके लिए बजटीय प्रावधान भी किया। नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की लोकसभा चुनावों मे अप्रत्याशित जीत मे वेब (सोशल) मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण थी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी सोशल मीडिया के महत्व की कई मंचों पर स्वीकृति दी है। जिस ‘मोदी लहर’ की मीडिया वाले आए-दिन अपनी ‘न्यूज़-डिबेट’ मे चर्चा करते है, उस लहर को आक्रामक बनाने मे ‘सोशल मीडिया’ की अहम भूमिका रही है।
‘अबकी बार, मोदी सरकार’ ‘हर हर मोदी…घर घर मोदी’ जैसे विवादास्पद नारे भी सोसल मीडिया के ही हिस्से थे। लोकसभा चुनावों में सोशल मीडिया के प्रभाव को अध्ययन करने पर कई चौंकानें वाले तथ्य एवं आंकड़े सामने आए है। लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद केवल फेसबुक पर 29 मिलियन लोगों ने 227 मिलियन बार चुनाव से संबन्धित पारस्परिक क्रियाएं (जैसे पोस्ट लाइक, कमेंट, शेयर इत्यादि) की। इसके अतिरिक्त 13 मिलियन लोगों ने 75 मिलियन बार केवल नरेंद्र मोदी के बारे में बातचीत की। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि 814 मिलियन योग्य मतदाताओं वाले देश (भारत) में सोशल मीडिया का प्रचार का पैमाना लोकसभा चुनावों के दौरान व्यापक था।
अन्ना हज़ारे और आम आदमी पार्टी के संस्थापक अरविंद केजरीवाल को ब्रांण्ड बनाने में सोशल मीडिया का अहम योगदान रहा है। देश –दुनिया में जुनून पैदा करने वाले अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की सफलता में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यह सोशल मीडिया का ही करिश्मा था कि छोटी सी चिंगारी को उसने जनाक्रोश में तब्दील कर दिया था। तत्कालीन यूपीए सरकार दबाव में आ गयी थी। सरकार ने भी सोशल मीडिया की शक्ति को स्वीकारा था। सोशल मीडिया सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लड़ाई मे एक ‘मेसेंजर’ के तौर पर उतरा है। लोगों की आवाज़ को सरकार तक पहुंचाने मे सोशल मीडिया सक्रिय रहा है। सोशल मीडिया ने सामाजिक कुरुतियों को उजागर करने और जागरूकता फैलाने में भी अहम भूमिका निभाई है। सोशल मीडिया सरकार पर दबाव बनाने का प्रभावकारी जरिया बन गया है। ‘आरुषि-हेमराज’ हत्याकांड, ‘दामिनी बलात्कार कांड’, गीतिका-गोपाल कांड़ा’ जैसे अनेक मामलों में सोशल मीडिया ने इंसाफ की जंग लड़ी है।
दिल्ली का दिल दहला देने वाले दामिनी बलात्कार कांड को लेकर सबसे ज्यादा आक्रोश सोशल मीडिया पर ही दिखा। यह सोशल मीडिया का ही प्रभाव था कि तत्कालीन सरकार ने आनन-फानन मे उक्त घटना के बाद कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए। पूरा देश और सोशल मीडिया दामिनी के साथ खड़ा था। देश-विदेश से ऐसी घटनाओं के खिलाफ माहौल बनाने का पूरा श्रेय भी इसी माध्यम को जाता है। सोशल मीडिया को जिस तरह से स्वीकृति मिल रही है उससे कहा जा सकता है कि भूतकाल कीर्तिमय था, वर्तमान समृद्ध है, भविष्य उज्ज्वल और यशस्वी होगा। जिस तरह से आज समाज के हर वर्ग ने सोशल मीडिया को अपनी स्वीकृति दी है, उससे इसकी ‘स्वीकार्यता’ और ‘उपयोगिता’ जाहिर तौर पर अन्य मीडिया माध्यमों के लिए एक गंभीर चुनौती के तौर पर उभरी है। इसके बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर मीडिया हाउसों के रणनीतिकार अपनी व्यापारिक और पेशेवर रणनीतियों में बदलाव को मजबूर हुए हैं।
उधर, परंपरागत मीडिया के प्रभावी माध्यम माने जाने वाले टेलीविजन को आम जनता देखती है। उसे कोसती भी है। क्या इसे हम टीवी चैनलों की विश्वसनीयता पर संकट कहें ? टीवी चैनलों के आने के बाद जो कुछ गलत हो रहा था, उसे लोगों के बीच में लाने का काम शुरू हुआ। आने वाले समय में सोशल मीडिया एक प्रभावकारी और भरोसेमंद तथा त्वरित पत्रकारिता का स्थान लेगी। पश्चिमी देशों में ऐसा होने लगा है। सोशल और यहां तक कि टीवी पत्रकारिता ने बहुत बड़ी क्रांति ला दी है। इसने अभिजात्य संस्कृति को ध्वस्त किया है। सामंतवादी सोच को बदला है और जमीनी स्तर तक लोकतंत्र को फैलाया है।
वेबसाईट, ईमेल, ब्लॉग, सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटस, जैसे माइ स्पेस, आरकुट,फेसबुक आदि, माइक्रो ब्लागिंग साइट टि्वटर, ब्लाग्स, फॉरम, चैट वैकल्पिक मीडिया का हिस्सा हैं| यही एक ऐसा मीडिया है जिसने अमीर, गरीब और मध्यम वर्ग के अंतर को समाप्त किया है| अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा अब बढ़ गया है। निश्चित तौर पर वैकल्पिक मीडिया में अपार संभावनायें है। दूसरी ओर, यह सच उजागर करने का क्षमता भी रखता है। विकीलीक्स द्वारा किये गये खुलासे इसके उदाहरण हैं। आज धीरे धीरे जहां ब्लॉगिंग प्रिंट मीडिया के समानान्तर खड़ा होने लगा है, वहीं इसके भविष्य की वृहद संभावनायेँ इसे न्यू मीडिया के रूप मे चर्चित कर रही हैं। न्यू मीडिया अथवा ब्लागिंग की कुछ विशेषताएँ ऐसी हैं जो इसे अन्य माध्यमों से बेहतर और विस्तृत बनाती है। आज गूगल समाचार के कारण यूरोप और अमेरिका में अखबारों की संख्या और रेवेन्यू दोनों गिर रहे हैं। अमेरिकी मीडिया अकादमिक प्रो फिलिप ने अखबारों के पतन का उल्लेख करते हुए लिखा है कि अगर ऐसा ही रहा तो अप्रैल 2040 में अमेरिका में आखिरी अखबार छपेगा।
अमेरिका का सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार वाशिंगटन पोस्ट बिक गया, जिसे आमेजन डॉट काम ने खरीद लिया। न्यूयार्क टाइम्स भी कर्ज में डूब चुका है। साप्ताहिक पत्रिका न्यूजवीक का प्रिंट संस्करण बंद हो चुका है और वह अब केवल ऑनलाइन ही पढ़ी जा सकती है। सवाल यह है कि अखबारों के बिना पत्रकारिता का क्या होगा। अखबार ही नहीं बल्कि टेलिविजन न्यूज की दर्शकों की संख्या में भी कमी आ रही है। बस इंटरनेट बढ़ रहा है। सोशल मीडिया हमें सूचनायें उपलब्ध करा रहा है।
अमेरिका में आज बहस का दूसरा मुद्दा यह है कि पत्रकार कौन है! एडवर्ड स्नोडन, राबर्ट मैनी , जूलियन असांजे आदि के खुलासों के बाद पत्रकार की परिभाषा बदल गयी है। इस संदर्भ में देखें तो अब ‘सिटीजन जर्नलिज्म’ का जमाना है। ब्लॉगिंग, फेसबुक आदि के प्रसार के बाद आज हर नागरिक एक पत्रकार की भूमिका में है। यह क्राउड सोर्स का समय है। तकनीकी विस्तार के कारण न्यू मीडिया और सोशल मीडिया का समाज में दखल और वर्चस्व इतना बढ़ता जा रहा है कि सरकार इसके लिए नियामक प्राधिकरण गठित करने की सोच रही है। सोशल मीडिया पर स्टेटस लिखना अभिव्यक्ति की आजादी के बड़े सवाल से जुड़ गया है। इस विवाद ने अधिक तूल तब पकड़ा, जब महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की अंतिम यात्रा के दौरान राज्य में घोषित किये गये बंद को एक लड़की द्वारा फेसबुक पर गैर-जरूरी बताये जाने पर उसे गिरफ्तार कर लिया गया।
ऐसे ही मामले पश्चिम बंगाल और पुद्दुचेरि में भी सामने आये हैं। सोशल मीडिया पर की गयी टिप्पणियों को आधार बना कर पुलिस ऐसी गिरफ्तारी आइटी कानून की धारा 66-ए के तहत कर रही है। इस धारा को लेकर दिल्ली की छात्र श्रेया सिंघल ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। याचिका में श्रेया ने 66-ए को कठघरे में लाते हुए इसे अभिव्यक्ति की आजादी, न्याय के समक्ष समता और जीवन के अधिकार से जोड़ा है।
ब्रिटेन में पिछले साल हुए दंगों के बाद बनी जांच समिति ने दंगों में सोशल मीडिया की भूमिका की भी जांच की थी और उसे भी दोषी पाया था। ‘आफ्टर दि रायट्स’ नाम से तैयार इस रिपोर्ट में सोशल मीडिया को तब के दंगों के लिए जिम्मेदार बताया गया था, लेकिन इसके लिए अन्य कारण जिम्मेदार थे, वे माध्यम (सोशल मीडिया) नहीं।
इसमे दो राय नहीं कि मीडिया बाजार का हिस्सा है। इसका संचालन निजी हाथों में है। यह लोकतंत्र के तीन अन्य स्तंभ की तरह नियमों, कायदों और प्रावधानों के तहत भी नहीं है। संविधान इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। लिहाजा, तब क्या इसे सामाजिक जवाबदेही की दायरे में लाया जाना चाहिए। इस जवाबदेही का स्वरूप क्या हो, इस पर भी विमर्श जरूरी है। प्रेस काउंसिल आफ इंडिया हमेशा से कहता रहा है कि नागरिक समाज के प्रति मीडिया को जवाबदेह होना होगा..। जब रिजनेबल रिस्ट्रिक्शन का मतलब उसे नियंत्रण करना नहीं है, ऐसे में काउंसिल की चिंता समाज में उसे भरोसेमंद बनाने को लेकर है। ताकि लोगों का मीडिया से जुड़ा भरोसा खत्म न हो।
* लेखक प्रेस काउंसिल आफ इंडिया के सदस्य हैं
प्रेस इन्फोर्मेशन ब्यूरो की वेबसाईट से साभार