उत्तराखंड की लोक परंपरा ‘औखांण’ को पुनर्जीवित करने की अनूठी पहल
देहरादून (अंकित तिवारी) | उत्तराखंड की संस्कृति और लोक-जीवन में गहरी जड़ें रखने वाली परंपराएं आज भी समृद्ध और महत्वपूर्ण हैं, लेकिन समय के साथ उनका स्वरूप बदलता जा रहा है। विशेष रूप से ‘औखांण’— जोकि उत्तराखंड की लोक-कहावतें हैं—एक ऐसी परंपरा है जो जीवन के अनुभवों और ज्ञान का संकलन है। इन लोक-कहावतों में न केवल पहाड़ी जीवन की झलक मिलती है, बल्कि जीवन के गहरे सत्य और व्यावहारिकता भी प्रकट होती हैं। आज, जब उत्तराखंड के लोग तेजी से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, ‘औखांण’ जैसी महत्वपूर्ण परंपराएं धीरे-धीरे हासिये पर जाती नजर आ रही हैं। हालांकि, इन कहावतों की प्रासंगिकता कभी भी समाप्त नहीं हो सकती, चाहे वह ग्रामीण जीवन हो या शहरी। इन कहावतों का शाब्दिक अर्थ और भावार्थ हमेशा ही समाज और संस्कृति के लिए मूल्यवान रहेगा। ऐसे में साईं सृजन पटल का प्रयास अत्यंत सराहनीय है। इस पटल के माध्यम से नई पीढ़ी को ‘औखांण’ से परिचित कराने की योजना एक महत्वपूर्ण कदम है। डॉ. के.एल. तलवाड़ और उनकी टीम ने इस दिशा में जो पहल की है, वह न केवल इस धरोहर को संरक्षित करेगी बल्कि इसे नई पीढ़ी तक पहुंचाने में भी सहायक होगी। हर रविवार को औखांण के अर्थ और भावार्थ को समझाने की इस योजना से युवाओं में अपनी जड़ों के प्रति गर्व और समझ विकसित होगी। इतिहास के शिक्षक डॉ. वेणीराम अन्थवाल द्वारा साईं सृजन पटल के पुस्तकालय को भेंट की गई पुस्तक ‘उत्तराखंड के लोक-जीवन की समृद्ध परंपरा ‘औखांण’ इस दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान है। इस पुस्तक में 833 औखांणों का संकलन है, जो कि लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती हैं। इन औखांणों में जीवन की सच्चाइयों, मान्यताओं और अनुभवों का गहरा निचोड़ मिलता है। उदाहरण के लिए, ‘बुढ्यों कु व्बल्यों अर औलों कु स्वाद बल बाद म औंदू’ (वृद्ध व्यक्ति की कही बात तथा आंवले का स्वाद बाद में आता है) या ‘दानक ग्वरु क बल दांत न खुर’ (बिना परिश्रम के जो वस्तु प्राप्त हो वह बेकार ही होती है) जैसे औखांण, जीवन के गहरे अनुभवों का प्रतीक हैं। ये कहावतें न केवल मनोरंजक हैं, बल्कि इनमें समाज और संस्कृति की जटिलताएं भी समाहित हैं। अंततः, साईं सृजन पटल का यह प्रयास इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। जब नई पीढ़ी इन कहावतों के अर्थ और भावार्थ से परिचित होगी, तो वे अपनी जड़ों से जुड़े रहेंगे और अपनी संस्कृति के महत्व को समझ पाएंगे। यह पहल न केवल उत्तराखंड की समृद्ध परंपरा को संजोएगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को अपनी सांस्कृतिक धरोहर से जुड़ने का अवसर भी प्रदान करेगी।