सद्गुरू के दरबार में तमाम गुनाहों की माफी मिला करतीः कुष्मिता भारती
देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा आयोजित सत्संग कार्यक्रम में प्रवचन करते हुए आशुतोष महाराज की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी कुष्मिता भारती ने कहा कि सदाशिव भोलेनाथ के सर पर अर्द्धविकसित वक्र चंद्रमा (आधा टेढ़ा चांद) भी भगवान शिव के साथ-साथ संसार के द्वारा पूजनीय बन जाता है। एैसे ही पूर्ण गुरू के चरण कमलों में दण्डवत शिष्य भी समूचे जगत के द्वारा आदरणीय और पूजनीय बन जाया करता है। शास्त्र गुरू को पारस से भी ऊंचा दर्ज़ा देते हुए कहता है कि पारस अपने सम्पर्क में आने वाले लोहे को कंचन (स्वर्ण) में परिवर्तित कर देता है परन्तु पारस अपने सम्पर्क में आने वाले लौह को ‘पारस’ में तब्दील नहीं कर सकता है। परन्तु गुरू अपने शिष्य को अपना ही स्वरूप प्रदान कर देने की अद्वितीय क्षमता रखते हैं। महापुरूष समझाते हुए कहते हैं कि एक साधारण नदी को यदि पार करना है तो एक नाव के द्वारा अथवा तैर कर पार किया जा सकता है, परन्तु यदि अनन्त सागर को पार करना हो तो नाव और तैराक दोनों के द्वारा ही यह असम्भव कार्य है। सागर को पार करने के लिए तो एक एैसा जहाज़ चाहिए जो न टूटे, जो न रूके और जो न डूबे। पूर्ण गुरू एक एैसा ही सशक्त जहाज़ हैं जिस पर यदि शिष्य सवार हो गया तो उसका पार उतरना तय ही तय है। इस जहाज़ से पार उतरने की उज़रत केवल गुरू की निष्काम भाव से की गई सेवा ही है, अन्य कुछ भी नहीं। जब एक मनुष्य पूर्ण सद्गुरू के श्री चरणों का आश्रय प्राप्त कर लेता है, उनका शिष्यतत्व धारण कर लेता है तो एैसे षिष्य का धर्म, उसकी उर्ज़ा और उसका निर्माण केवल सद्गुरू की सेवा से ही सुलभ, सम्भव हो जाया करता है। गुरू की सेवा जब निष्काम-निस्वार्थ भाव से और हृदय की गहराईयों में डूब कर की जाती है तो गुरू की प्रसन्नता का परिचायक बन जाती है। पूर्ण गुरू से जब उनके एक शिष्य ने पूछा कि हे गुरूदेव ! आपकी सेवा पात्रता कैसी हो? इस पर पूर्ण गुरू ने अपने शिष्य का मार्ग दर्शन करते हुए बताया कि एक प्रकार के सेवक देवलोक के सेवक सदृश्य हुआ करते हैं, उनकी दिव्यता उनसे गुरू की सेवा करा लिया करती है। दूसरी प्रकार के सेवक पवित्र सेवक होते है जो भीतर और बाहर से पावन होकर सहज़ता पूर्वक गुरू की सेवा में प्रवृत्त हो जाया करते है। इतने में ही शिष्य कातर स्वर में निनाद कर उठा कि प्रभु इस तरह से तो मैं कभी भी आपकी सेवा में तत्पर हो ही नहीं पाऊंगा क्योंकि मैं तो अनन्त अपराधों, अनेकानेक पापों से ग्रसित हूँ , न तो मेरे पास देवलोक सी दिव्यता है और न ही किसी प्रकार की पवित्रता ही मेरे भीतर विद्यमान है। गुरूदेव सहसा बोल उठे कि हे वत्स! अभी मेरी बात पूर्ण नहीं हुई है, एक प्रकार के शिष्य एैसे भी हुआ करते हैं जिनसे गुरू अपनी करूणा, अपनी दया के बल पर सेवा करा लिया करते हैं। सच में! गुरू से बढ़कर कोई भी न तो करूणाकर है और न ही कोई दयाधर है। इसीलिए गुरू को करूणा सिंधु और दया का सागर कहकर सदा-सर्वदा से अभिवंदित किया गया है। मनुष्य के अपराधों, उसके पापों, उसके विकारों को ईश्वर भी न्याय के तराजू पर तोल कर ही निर्णय देते हैं परन्तु सद्गुरू के दरबार में ही तमाम गुनाहों की माफी मिला करती है, बड़े से बड़ा अपराध भी क्षमाशील गुरूदेव के द्वारा क्षम्य हो जाया करता है। एक सूफी शायर द्वारा करूणा सिंधु गुरू के ही सम्बन्ध में क्या खूब कहा है- दया की न होती जो आदत तुम्हारी, तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी। साध्वी कुष्मिता भारती ने भक्तों का मार्ग दर्शन करते हुए कहा कि भगवान श्रीराम पावन ग्रन्थ श्री रामचरितमानस के माध्यम से बताते है कि मनुष्य सदा से पुण्य कमाने की अदम्य उत्कण्ठा से भरा रहता है, वह पुण्य कमाकर लाभ पाना चाहता है। पुण्य के तरीके अलग-अलग हैं। कुछ पुण्य कर्म उसे स्वर्ग की प्राप्ति करा सकते हैं, इन पुण्यों के बल पर मनुष्य स्वर्गिक सुखों की प्राप्ति कर सकता है परन्तु यह पुण्य कर्म उसके बंधन का ही कारण बन जाते हैं क्योंकि जैसे ही पुण्य कर्म क्षीण होंगे उसे पुनः चैरासी की यात्रा पर निकल पड़ना होगा। महापुरूषों ने शुभ कर्मों को सोने की हथकड़ी तथा अशुभकर्मों को लोहे की हथकड़ी बताया है, ओर दोनों का ही काम बांधने का हुआ करता है। इन सब कर्मों से ऊंपर भक्ति कर्म है, सेवा कर्म है। सद्गुरू प्रदत्त ‘ब्रह्म्ज्ञान’ द्वारा प्राप्त शाश्वत् भक्ति तथा सद्गुरू की निष्काम सेवा, यह कर्म, वह कर्म हैं जो मानव मात्र को स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। आवागमन से मुक्ति देते हैं। मोक्ष की प्राप्ति करवाते हैं। सद्गुरू की सेवा से बढ़कर न तो कोई सेवा है और न ही कोई मोक्ष दाता कर्म ही है।