संघर्ष करती सामाजिक भूमिकाएं…..
जरा हटके | मर्द अगर गुस्से में अपने माता पिता अथवा अपने अग्रज से आक्रोश में बात नहीं करता , उन्हें आहत नहीं करता तो ये बात जब उसके गुरूर , उसकी अर्धांगिनी, उसकी पत्नी की आती है तो क्यों वह इस प्रकार का व्यवहार प्रयोग में लाता है। क्यों अपने अहंकार को अपना साथी बना उस इंसान को आहत करता है जिसके साथ उसने अपनी पूरी जिंदगी व्यतीत करने का सपना देख रखा है, जिस इंसान ने उसकी हर छोटी बड़ी मुसीबतों में, खुशियों में उसका साथ दिया , क्या उस महिला को इतना भी हक नहीं है कि वह अपनी बात रख सके ? ,क्या उस महिला को इतना भी हक नहीं की वो स्वयं की खुशी के बारे में सोचे ? क्यों हर वक़्त ज़माने में स्वयं को सहज , सरल कहने वाला , शुद्ध विचारों कि नुमाइश करने वाला , घर की चार दिवारी में अभद्रता , निर्ममता और तुच्छ विचारों का प्रदर्शन करता है ? ज़ाहिर है शायद वो ज़माने में बस वाह वाई लूटने के लिए यह सब ढोंग रचाता है और यही शिक्षा देता है अपने आने वाले कल को ढोंग करो ज़माने में और जियो मुखौटे के साथ समाज में , यदि व्यक्ति किसी नशे का आदि है तो एक पल को उस नजरंदाज भी किया जा सकता है क्युकी उसकी इन्द्रियों पे उसका नियंत्रण नहीं किन्तु ये व्याख्या सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं है , ये व्याख्या समाज के उच्च स्तरीय और सभ्य लोगों में भी देखी जाती है और यही शर्मनाक बात है |यह विडंबना है मेरे देश की, कि कई धर्मों , जातियों , भाषाओं का समावेश रखने वाला यह देश पुरुष प्रधान देश कहा जाता है जबकि प्रधानता तो पुरुष की कहीं नहीं दिखती , पुरुष प्रधान है तो उसके साथ चल रही उस रोशनी के कारण जो किसी भी स्वरूप में हो सकती है वह मां हो सकती है , बहन हो सकती है वह पत्नी हो सकती है , प्रेमिका हो सकती है | यह किस बात का गुरूर है यह ? क्यों मर्द अपनी गलतियों को स्वीकारने या उन्हें दबाने के बजाय उसे सुधारने पर ध्यान नहीं देता ? क्यों अपने अहंकार को , अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए वह गुस्सा कर , हिंसा कर , ऊंचा बोलकर अपनी गलतियों को छुपाना और दबाना चाहता ? सबसे असम्मानजनक बात तो यह है कि इन सभी दुर्व्यवहारों का मूक दर्शक बने घर के नन्हे दीप इन सभी बातों को अपने ज़हन में उतार रहे होते हैं , ज़ाहिर सी बात है कि इस प्रकार का व्यवहार वह अपने घर से ही सीख कर आते हैं अपने पिता से सीख के आते हैं , अपने बड़ों से सीख कर आते हैं , तो अगर आगे चलकर पिता स्वयं के सम्मान और आदर की अपेक्षा रखते हैं तो ज़रा गौर फरमाइए गा , जो दृश्य आपके बच्चों ने अपने बचपन में देखा है वह दृश्य आप ही ने उन्हें दिखाया है और उसी नक्शे कदम पर उसका चलना लाज़मी है सोचिए , समझिए , परखिए अगर आप अपने व्यक्तित्व को ऊंचा रखते हैं तो साथ ही में महिलाओं के व्यक्तित्व को भी समझे उन्हें भी अपने व्यक्तित्व को जीने का पूरा अधिकार है ।
– मयंक वर्मा